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मृगतृष्णा / मन्त्रेश्वर झा

जंगलो पर जखन राज करय लागल मनुक्ख
आ जंगल लागय लगलैक भयावह
तखन सभ हरिण
जंगल सँ कोनहुना भागल
पड़ाइत, पड़ाइत
पड़ाइत, पड़ाइत
तकैत तकैत जंगल विहीन धरती
पहुँचि गेल मरुभूमि मे
दौड़ैत दौड़त थाकि
गेल छल सभ हरिण,
अपस्यांत भऽ गेल छल,
भरि गेल छल अनंत प्यास सँ
चारू कात देखैत गेल छल हरिण,
मुदा कतहु ने भटेल रहैक मनुक्ख
आश्वस्त भऽ गेल छल सभ हरिण,
सोचय लागल छल
जे जरूर हेतैक पानि,
एहि मरुभूमि मे
नहि छैक एहिठाम एक्कोटा मनुक्ख
जे चाटि जइतैक सभटा पानि
जेना चाटि गेल रहैक जंगलकें
बस दौड़य लागल छल हरिण
पानिक ताकमे
ओहि मरुभूमि मे।
लगलैक जे दूर बहुत दूर
छैक कोनो सरोवर
जुड़ा गेलैक ओकर मोन
दौड़ल हरिण आओर जोर सँ,
तहिया सँ दौड़ल
जा रहल अछि हरिण,
ओहि सरोवर मे नहेबाक लेल
ओकर कात कात
कोनो नव प्रकारक जंगल
लगेबाक लेल
जतय नहि पहुँचि सकैक
कोनो मनुक्ख
आ रहि सकय सभ हरिण
ओहिठाम जाके निर्भीक, निश्चिन्त
कूदैत, उछलैत, पागुर करैत
जेना कोनो इन्द्रधनुष सँ
प्रतियोगिता करैत, नचैत
तहिया सँ ताकि रहल अछि सभ हरिण
थाकियो के नहि थकैत
ताकि रहल अछि दूर बहुत दूर
क्षितिज के पार के ओहि पार
ओहि सरोवर
लेल उछलैत
भेल आनन्द मे सरावोर बेचारा हरिण।