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मृगतृष्णा / विपिन चौधरी

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मृगतृष्णा और इंसान में
उतना ही अंतर है
जितना अंतर प्रेम और प्यास में
जीवन और आस में है
आशाओं के छोटे-बडे टापुओं को लाँघते हुए हम
वहीं पहुँच पाते हैं केवल,
जहाँ दूर तक फैला हुआ पानी है
और लगातार लम्बी होती घनी परछाइयाँ हैं
तमाम उम परछाइयों के पीछे भागते
पानी से प्यास बुझानें की असफलता में
डूबे- ऊबें हम
आस पर टेक लगाएँ दूर तक
देखने के आदि हो चले हम
एक छलावे से निपटने के बाद
दूसरे छलावे के लिए तैयार हम
कभी रुकते ही नहीं
मानों छलावा ही हमारी नियति है
किसी दुसरी मृगतृष्णा के मुहाने पर
हम तैयार हो बैठे जाते है
दोनों आँखे खुली रखे
और दोनों मुट्ठियों को बंद रखे हुए।