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मृत्युलोक और कुछ पंक्तियाँ / कुमार अंबुज

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इसी संसार की भीड़ में दिखा वह एक चेहरा, जिसे भूला नहीं जा सकता ।
तमाम मुखौटों के बीच सचमुच का चेहरा ।
या हो सकता है कि वह इतने चेहरों के बीच एक शानदार मुखौटा रहा हो ।
उस चेहरे पर विषाद नहीं था जबकि वह इसी दुनिया में रह रहा था ।
वहाँ प्रसन्नता जैसा कुछ भाव था लेकिन वह दुख का ठीक विलोम नहीं था ।
लगता था कि वह ऐसा चेहरा है जो प्रस्तुत दुनिया के लिए उतना उपयुक्त नहीं है ।
लेकिन उसे इस चेहरे के साथ ही जीवन जीना होगा । वह इसके लिए विवश था ।
उसके चेहरे पर कोई विवशता नहीं थी, वह देखने वाले के चेहरे पर आ जाती थी ।
वह बहुत से चेहरों से मिल कर बना था ।
उसे देख कर एक साथ अनेक चेहरे याद आते थे ।
वह भूले हुए लोगों की याद दिलाता था ।
वह अतीत से मिलकर बना था, वर्तमान में स्पंदित था
और तत्क्षण भविष्य की स्मृति का हिस्सा हो गया था ।
वह हर काल का समकालीन था ।
वह मुझे अब कभी नहीं दिखेगा । कहीं नहीं दिखेगा ।
उसके न दिखने की व्यग्रता और फिर उत्सुकता यह सम्भव करेगी
कि वह मेरे लिए हमेशा उपस्थित रहे ।
उसका ग़ुम हो जाना याद रहेगा ।
यदि वह कभी असम्भव से संयोग से दिखेगा भी तो उसका इतना जल बह चुका होगा
और उसमें इतनी चीज़ें मिल चुकी होंगी कि वह चेहरा कभी नहीं दिखेगा ।
हर चीज़ का निर्जलीकरण होता रहता है, नदियों का, पृथ्वी का और चन्द्रमा का भी ।
फिर वह तो एक कत्थई-भूरा चेहरा ही ठहरा ।
उसे देख कर कुछ अजीवित चीज़ें और भूदृश्य याद आए। एक ही क्षण में:
लैम्पपोस्टों वाली रात के दूसरे पहर की सड़क ।
कमलगट्टों से भरा तालाब ।
एक चारख़ाने की फ्रॉक ।
ब्लैक एंड व्हाईट तसवीरों का एलबम ।
बचपन का मियादी बुख़ार ।
स्टूल पर काँच की प्लेट और उसमें एक सेब ।
एक छोटा-सा चाकू ।
छोटी-सी खिड़की ।
और फूलदान ।
उस स्वप्न की तरह जिसे कभी नहीं पाया गया ।
जिसे देखा गया लेकिन जिसमें रहकर कोई जीवन सम्भव नहीं ।
कुछ सपनों का केवल स्वप्न ही सम्भव है ।
वह किसी को भी एक साथ अव्यावहारिक, अराजक,
व्यथित और शान्त बना सकता था ।
वह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष है लेकिन मेरे लिए हमेशा के लिए ओझल ।
कई चीज़ें सिर्फ़ स्मृति में ही रहती हैं ।
जैसे वही उनका मृत्युलोक है ।