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मृत्यु पर्व / संजय शेफर्ड

(!)
उस दिन जब कुछ अच्छे दिनों को याद करते हुए
लिखनी चाही थी एक कविता
बूरे दिन ठिठककर सामने खड़े हो गए थे
यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे हृदय ने मेरी आत्मा से सवाल किया था

मेरी पीठ पर उभर आई थी, मेरे जन्म की तारिख
क्या यह वही दिन है ?
जिस दिन ईश को वल्लरी के क्रूस पर चढ़ाया गया था
या फिर वह ? जिस दिन वासुदेव और देवकी को कंस ने कारागार में डाल दिया था
अपने पूर्व नियोजित मृत्यु के भय से

तब मैंने सोचा था कि मैं कभी भी अपने माझी को याद नहीं करूंगा
… और मैंने अपने पैरों के अंगूठे से खोदी थी धरती
… और अच्छे- बुरे से इतर वह सबकुछ दफन कर दिया था जो मेरी स्मृतियों में था।


(!!)
शोकगीत ख़त्म हो चुका था, चिता की आग ठण्डी हो रही थी
मेरा हाल मुझको कोस रहा है
मेरी उम्र महज एक लम्हें की इतिहास है
जन्म के आलावा अब कोई भी तारिख याद नहीं रहती
दरअसल, छोटी- छोटी घटनाओं की तारिख होती भी नहीं, बस समयकाल होता है

मेरे जन्म की तारिख विद्रोह थी या फिर क्रान्ति
स्पष्टतौर पर कुछ कह नहीं सकता
मां जानती है, उसने ना जाने कितने समयकालों को पेट से पैदा किया है
पर कहती कुछ भी नहीं
शायद उसने भी मेरी ही तरह अपने माज़ी को मिट्टी में दबा दिया है

… और गर्भ में पाल रही है सैकड़ों सिन्धू घाटियां
… और मोहनजोदडो …और हड़प्पा की संस्कृतियां
हाल पर समय की चमड़ियां परत-दर-परत चढ़ती, मोटी होती जा रहीं है


(!!!)
मेरा माज़ी इबारत बन चुका है, हाल धुंधलाता जा रहा है
मुस्तकबिल की बेदी पर टंगी हुई हैं, टकटकी लगाये कुछ बेवश आंखें
बीसवीं सदी की अनेक परछाइयां, इक्कीसवीं सदी में तैर रही हैं
अकाल, गुलामी, उपनिवेशवाद और तमाम क्रान्तियों के खत्म हो जाने के बाद भी
अनवरत चल रही हैं, कुछ अदृश्य लड़ाईयां

एक पूर्व निर्धारित 'शब्द' को युद्ध मानकर
हमारे लिए आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद महज़ शब्द नहीं रहा
हथियार बन चुका है
हम सब उसी हथियार के साथ, कभी उसी हथियार के खिलाफ लड़ रहे हैं
मर रहें हैं, मारे जा रहे हैं ; हत्याएं, आत्महत्याएं कर रहे हैं

… और हम सब कुछ अच्छे दिनों को याद करते हुए लिख रहें हैं शोक दिवस
… और हम सब जीवन के अनुष्ठान में मना रहे हैं मृत्यु पर्व
… और हमारी लड़ाईयां परस्पर बड़ी होती जा रही हैं।