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मेरठ मेडिकल कालिज / शमशाद इलाही अंसारी

ठिठुरती सर्दी की उस रात में
ठक... ठक... ठक...
सीढ़ियों से आती
क़दमों की आहट।

थके कदम
मैले कमीज़-पाजामा, फ़टे जूते
मुर्झाये गुलाब-सा चेहरा
कान के पास से बहता पसीने
मन मस्तिष्क में दुविधा संजोए
हाथ में कागज़ का पुर्जा लिये चुपचाप
अस्पताल से बाहर जाता हुआ वह शख़्स ।

सहसा..दर्द भरी एक चीख़ "हाय मरा"
सन्नाटे को चीरता वह क्रदन
मैं विचलित हुआ, देखा... एक रोगी था।

नौजवान छात्र-छात्राओं की एक टोली
अंग्रेज़ी बोलते, आनन्दमग्न,
बराबर से गु़जर गई।

मैं आगे बढा़, ठिठका, फ़िर रुका
जूनियर डाक्टर्स का यूनिट रूम था यह
ठहाकों और कपों के खनकनें की आवाज़ सुनकर
मैं अपने रोगी के वार्ड में पहुँचा ।

कुछ समय बाद
कोई आधा दर्जन जूनियर डाक्टर्स की टोली
जो बारी-बारी, रोगियों की हिस्ट्री लेते
उनसे, पशुओं से भी निम्न व्यवहार करते।

मेरे बराबर में एक "स्टाफ़" रोगी
सिस्टर, डाक्टर उसे अच्छी तरह देखते।

इस बीच, वह व्यक्ति भी लौट आया,
हाथ में लिये काग़ज़ को दिखाते बोला...
ये इन्जेक्शन्स नहीं मिले साहब.
"हम क्या करें" डाक्टर झल्लाया

स्टाफ़ रोगी की सभी दवायें
सिस्टर की कृपा से स्वत: आ जाती।

है जिनका "सेवा ही धर्म" का नारा
असंख्य रोगियों के घरों को है उन्होंने उजाडा़
लाखों केसों को है जिन्होंने बिगाडा़
है वह खुशकिस्मत
जो जीवित बचकर आया बेचारा।


रचनाकाल : 27.02.1986