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मेरा प्यार बेशक समंदर से भी है / डी. एम. मिश्र

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मेरा प्यार बेशक समंदर से भी है
मगर गाँव के अपने पोखर से भी है

किनारे जो लग करके डूबा सफ़ीना
कोई वास्ता क्या मुक़द्दर से भी है

तेरे इस चमन की हर इक शै है प्यारी
मुझे इश्क़ काँटों के बिस्तर से भी है

मेरे तन का बहता लहू बोल देगा
तअल्लुक़़ मेरा उनके खंजर से भी है

बहस यूँ न छेड़ो कभी मज़हबों पर
तवारीख़ जुड़ती सिकंदर से भी है

तुम्हें दिख रहा है जो अखलाक़ मेरा
नहीं सिर्फ़ बाहर से अंदर से भी है