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08:25, 25 मई 2010 का अवतरण
मेरा लक्ष्य खो गया साथी! जैसे तारा भोर का
मेरा मीत नहीं हो पाया,जैसे चाँद चकोर का
मैंने समझा था यह जीवन फूलों की मुस्कान है
मैंने समझा था यह यौवन, कलियों का मधुपान है
सपनों की नगरी में बेसुध बनकर चलना भूल थी
आँख खुली तो कुसुम नहीं वे, कली न वह उद्यान है
लघु तरणी को घेर गरजता सागर चारों और का
वे भी हैं जो लहरों में धंस मोती लाते तीर पर
वे भी हैं जो अमृत चुवाते, हृदय चाँद का चीरकर
मैं भी हूँ जो भावोंसे ही भरता रहा अभाव को
बादल के घोड़े पर चढ़कर उड़ता रहा समीर पर
हरदम कटी पतंग-सदृश था मन जिसका बेडोर का
एक चरण लहरों पर मेरा, एक तटी की रेत पर
मेरी साँसों से उठता है दोनों का समवेत स्वर
पर मैं किसको कहूँ कि मेरा! वह भी मुझसे दूर है
जीवन भर चलता आया हूँ मैं जिसके संकेत पर
रहा उपासक सदा-सदा मैं जिसकी करुणा-कोर का
आओ मिल लूँ बाँह पसारे, अबकी जाना दूर है
घुटती साँस, छूटता साहस, तन-मन थककर चूर है
वही देश अनजाना जिसकी और सभी जन जा रहे
जीवन के सारे कर्मों का अंत एक जो क्रूर है
आनेवाले रहें समझते आशय सुरभ-झकोर का
मेरा लक्ष्य खो गया साथी! जैसे तारा भोर का
मेरा मीत नहीं हो पाया,जैसे चाँद चकोर का