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मेरा वश चलता तो मैं बन जाता कौमार्य तुम्हारा / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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मेरा वश चलता मैं बन जाता कौमार्य तुम्हारा

होंठों पर निर्माल्य अछूता बनकर मैं छा जाता
अंगों के चम्पई रेशमी परदों में सो जाता
आँखों की सुरमई गुलाबी चितवन में खो जाता
मेरा वश चलता मैं बन जाता सौन्दर्य तुम्हारा

जब तुम सिहर लजातीं बनता मैं कानों की लाली
शरद समीरण में बनता मैं पुलकों की घनजाली
मैं न छलकने देता मुस्कानों की गोरी प्याली
मेरा वश चलता मैं बन जाता कौमार्य तुम्हारा

अनबीन्धे मोती की शुचिता तन में भर-भर देता
खस-खस पड़ते शिथिल चीर को मस्तक पर कर लेता
मैं गति चंचल मंजीरों को अधिक न बजने देता
मेरा वश चलता मैं बन जाता सम्भार तुम्हारा

जब मधु-सिक्त व्यथा में तुम नीहारों-सी घुल चलतीं
नीर भरी सित बदली-सी तुम मुझसे किलक मचलतीं
जब अखण्ड उज्ज्वलता में तुम घनसारों-सी जलतीं
मेरा वश चलता मैं बन जाता निष्कम्प तुम्हारा

बनता रंग तुम्हारा तुमसे विलग न होता क्षण भर
मादक रसमय गोद तुम्हारी देता किरणों से भर
किसी अचीन्हे स्वर में गाता बन यौवन का निर्झर
मेरा वश चलता मैं बन जाता कौमार्य तुम्हारा