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मेरी कविताओं में मैं / संजय कुमार शांडिल्य

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मैं जहाँ पैदा हुआ वह मेरे पिता की आजीविका का शहर था
मेरे बच्चे मेरी आजीविका के शहर में पैदा हुए
गाँव में पैदा हुए मेरे दादाजी, वे वहाँ बिना आजीविका के
जब तक रहे जीवित रहे

मेरी परदादी तकली पर कपास बाँटती थी गाँव में
मेरे परदादा कपास उगाते थे गाँव में
मेरा गाँव आज तक मुझे मेरे परदादा के
नाम से जानता है

वह लोहार जो कभी खुर्पियाँ बनाता था
वह मेरे पुरखों का पड़ोसी है

आज वह काले घोड़े के नाल की अँगूठियाँ बनाता है
मैं अपने समय के शनि और मंगल से
डरा हुआ उसके पास बैठता हूँ

न वह गाँव मुझमें रहता है
और न मैं उस गाँव में रहता हूँ
आज मेरे ख़ून में जितना अन्न है उतना ही ज़हर है
मैं जहाँ रहता हूँ वह मेरी आजीविका का शहर है
मैं क्या उगाता हूँ, क्या बनाता हूँ
वह जो खुर्पियाँ बनाता है और कपास उगाता है
जानना चाहता है

मेरे आस-पास कोई कुछ नहीं बताता
कि वह जो पैसे कमाता है, क्या बनाता है
कपास जैसा हल्का, खुर्पियों जैसा ठोस
इस शहर में किसकी आजीविका क्या है
कोई नहीं जानता है

इस शहर में न कोई मुझे न ही मेरे
बच्चों को पहचानता है
मेरी कविताओं में मुझे मत ढूँढ़ो
कविताएँ मैं पुरानी दीवारों पर
मकड़ियों को जाले बनाते देख के लिखता हूँ |