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मेरी धरती / पवन कुमार मिश्र

तुम जलती हो ,
जो धूप मै देता हूँ ।
तुम भीगती हो,
जो पानी मै उड़ेलता हूँ ।
तुम काँपती हो,
जो शीत मै फैलता हूँ ।
सब कुछ समेटती हो,
जो मै बिखेरता हूँ ।
तुम सहती हो
बिना किसी शिकायत के
मेरी धरती,
तुम रचती हो,
सृष्टि गढ़ती हो
और मै तुम्हारा आकाश
तुम्हे बाँहों में भरे हुए
चकित-सा देखता रहता हूँ
तुम हँसती हो
निश्छल हँसती जाती हो
हवाएँ महक जाती हैं
रुका समय चल पड़ता है
और ज़िन्दगी नए पड़ाव
तय करती है ।