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मेरी बारी, मेरी बारी, मेरी बारी / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'

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मेरी बारी, मेरी बारी, मेरी बारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

धो धो कै तो सीट जनरल भै छा
धो धो के ठाड़ हुणै ए बारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

एन बखत तौ चुल पन लुकला
एल डाका का जसा घ्वाड़ा ढाड़ी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

काटी मैं मूताणा का लै काम नी ए जो
कुर्सी लिजी हुणी ऊ ठाड़ी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

कभैं हमलैं जैको मूख नी देखो
बैनर में छाजि ऊ मूरत प्यारी
घर घर लटकन झख मारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

हरियो काकड़ जसो हरी नैनीताल
हरी धणियों को लूण भरी नैनीताल
कपोरी खाणिया भै या बेशुमारी
एसि पड़ी अलबेर मारामारी
हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

इस कविता का गद्यात्मक भावार्थ

मेरी बारी ! मेरी बारी - कहते सोचते हैं चुनावार्थी ! हाय ! इस बार देखिए ये मजेदारी!बड़ी मुश्किल से तो सीट अनारक्षित हुई है, बड़ी मुश्किल से हम खड़े हो पा रहे है। और ये वही लोग है जो विपदा आने पर बिलों में दुबक जाते है पर इस समय तो डाक के घोड़ों की तरह तैनात खड़े हैं (पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों में डाक घोड़ों पर ले जायी जाती रही है)। गजब कि बात है कि जो कटे पर मूतने के भी काम नहीं आता, वो कुर्सी की खातिर खड़ा होने में कभी कोताही नहीं करता। कभी जो सूरत नहीं दिखती वही उन बैनरों में चमकती-झलकती है, जो घर-घर लटके झख मारते रहते हैं।

और अंत के छंद में समाया है अपार दुख - कि हरी ककड़ी के जैसा मेरा हरा नैनीताल! हरे धनिए के चटपटे नमक वाले कटोरे -सा भरा नैनीताल ! ऐसे हमारे नैनीताल को नोच-नोच कर खाने चल पड़े हैं ये लोग बेशुमार ! अबकी पड़ी है ऐसी मारामारी !