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मेरी साँझ तिरपाल में ही ढलेगी / संजय तिवारी

वन में ही चक्रवर्ती जी के
अवसान की सूचना आयी थी
पिता की गोद बहुत याद आयी थी
माँ की रुदन व्यथा
भीतर तक समायी थी
कनक भवन की चांदनी
भी परायी थी, दुखदायी थी
पीड़ादायी थी हर बात
पोर पोर दुख था गात

जब जानकी धरती में समायी थी
धड़कने रुकने को आयी थीं
मन में न्याय की दुहाई थी
प्रजा के भरोसे की कमाई थी
इसी में दीं की भलाई थी
न ह्रदय फटा, न आँखे झुकी
केवल एक धारा बाहर आयी थी

सरयू की धारा में जब समाया
किसी के मन को बहुत नहीं भाया
नहीं थी कोई माया
लेकिन कोई नहीं आया
जो भी आया, धारा में समाया
बिना काया
बिना माया
बिना छाया

तब त्रेता का राम था
स्वयं से बड़ा नाम था
मानव होने का इलहाम था
लोकमंगल ही काम था

वन में रहने के चौदह साल
बड़ी ऊंची हो गयी थी भाल
संवेदना थी निहाल
मनुष्यता थी खुशहाल
वेदना थी बेहाल

इस कलियुग में यह आवास
तिरपाल में वास
पच्चीस वर्षो से
एक टकटकी, एक आस
इस पीढ़ी को क्या कहूँ
असमंजस में कब तक रहूँ
इस कलिकाल में खुद को
अजीब स्थिति में पाता हूँ
इस नस्ल को इसी के हाल पर छोड़
अब लौट जाता हूँ
या फिर करता रहूँ प्रतीक्षा
आस्था जीतती है या इच्छा?

कलयुग के ये मनुष्य
नहीं जान सकते विधि का अभिप्राय
क्या युक्ति है और क्या न्याय
ये नहीं जान सकते
जब सत्य की समझ होती है अविभाज्य
तब आता है राम राज्य
अभी तुम्हारी यात्रा चलेगी
वत्स
मेरी साँझ तिरपाल में ही ढलेगी।