Last modified on 19 जून 2014, at 11:32

मेरे अन्दर एक गुस्सा है... / राकेश रोहित

मेरे अन्दर एक गुस्सा है, गुस्से को दबाए बैठा हूँ
मैं जिस ग़म के दरिया में डूबा हूँ, उस ग़म को भुलाए बैठा हूँ ।

लहरों ने साहिल पर तोड़ दिए, घरौंदे कितने बचपन के
इन लहरों से मैं सपने की उम्मीद लगाए बैठा हूँ ।

दुनिया अनजानी हँसती थी - मंज़िल का पता भी भूल गए ?
वो क्या जाने मैं काग़ज़ की कश्ती बचपन से बनाए बैठा हूँ ।

वो रात बड़ी अंधियारी थी, जब तुम आए मेरे घर
तब से आँगन में सौ-सौ दीपक यादों के जलाए बैठा हूँ ।

एक जंग जैसे है दुनिया, एक दिन जीता, एक दिन हारा
कुछ मन में छुपाए बैठा हूँ, कुछ सब को बताए बैठा हूँ ।