भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे इंकलाब का सूरज / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:23, 23 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मशाल जले न जले मगर दिल ये जलता है
किसी के दमन से जब कोई दलित मरता है
मेरे तूफान से वह कश्ती न बचा पायेंगे
दलित के ऊपर जिनका बादल बरसता है

उठाकर गिराना तुमने है कहाँ पर सीखा
इस भूचाल से सवाल उमड़ पड़ते हैं
तुम चिराग बुझाना नहीं हम ज्वाला हैं
जिसकी आग में चट्टान भी पिघल उठते हैं

हम कायर नहीं जो मैदान से भाग जाये
जितना गरजता हूँ मेरा दिल उतना बरसता है
तुम्हारा वजूद इंसानियत का खैर ख्वाह नहीं
इसलिए हमारी सासों से तूफान उठता है

आदमख़ोर कातिलों सुनों, ये सारे सामंती
अब यह ज़माना तुम पर थू थू करता है
तुम्हें शर्म नहीं तो अकल पर ही डूब मरो
तुम्हारा धर्म अब किसी को अच्छा नहीं लगता है