Last modified on 30 जनवरी 2024, at 01:59

मेरे इर्द-गिर्द, मेरे आस-पास / मधु शुक्ला

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:59, 30 जनवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


तन्हाइयों के सादे - सपाट काग़ज़ पर
उभरते तुम्हारी स्मृतियों के हस्ताक्षर
प्रमाणित कर देते हैं, तुम्हारे होने का अहसास
मेरे इर्द - गिर्द, मेरे आस - पास ।

सन्नाटों की गोद में पनपता
तुम्हारा वजूद
लेने लगता है आकार
होने लगते हैं तार - तार
सारे आवरण
छटने लगती है धुन्ध परत - दर - परत
स्पष्ट होने लगता है मन का आकाश ।

जकड़ने लगता है चेतना को
अपनी गिरफ़्त में
क़दम - दर - क़दम फैलता
तुम्हारा विस्तार
शून्य में होता साकार
मौन की दहलीज़ में
दस्तक देती तुम्हारी आहट
झंकृत कर देती है रह - रहकर
तुम्हारे स्पर्श का आभास ।

समय की चादर सरकाकर
झाँकता अतीत
करवटें लेने लगती हैं सोई इच्छाएँ
जीवन्त हो उठता है सबकुछ
एकाएक
ज्यों का त्यों, वैसे के वैसे
हो जाते हैं निरर्थक
तुम्हें भूलने के सारे प्रयास ।
मेरे इर्द- गिर्द, मेरे आस पास
तुम्हारे होने का अहसास ।
 —