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मेरे क़रीब से जो एक शख़्स अभी ग़ुजरा है / शमशाद इलाही अंसारी

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मेरे क़रीब से जो एक शख़्स अभी गुज़रा है,
देखा हुआ लगता है पर देखा-सा नहीं है।

ख़ुशबुओं में लिपटा दूधिया बुलबुला-सा,
धुला हुआ-सा लगता है पर धुला नहीं है।

गुलों के तब्बस्सुम चमन के तमाम रंग है उसमें,
सजा-सजा हुआ लगता है पर सजा-सा नहीं है।

अपनी झील-सी आँखों में डूबने की इजाज़त देना,
मौत एक मुसलसल सिला हो पर सिला-सा नहीं है।

बेरहम मौसमों की तमाम बंदिशें तोड़कर,
वो एक फ़ूल खिला है पर खिला-सा नहीं है।

"शम्स" तेरी रग-रग फ़डकती है जिसकी आमद पर,
वो कभी मिला हुआ लगता है पर मिला-सा नहीं है।


रचनाकाल: 24.09.2002