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"मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे / वसीम बरेलवी" के अवतरणों में अंतर

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मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
 
मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पडने पे हाथों से जाते रहे
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वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे
  
बािरशे आयी और फ़ैसला कर गयी
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बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
 
लोग टूटी छते आज़माते रहे
 
लोग टूटी छते आज़माते रहे
  
आंखे मंज़र हुई, कान नग़्मा हुए
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आंखें मंज़र हुईं, कान नग़्मा हुए
 
घर के अन्दाज़ ही घर से जाते रहे
 
घर के अन्दाज़ ही घर से जाते रहे
  
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आंसुओं-से इन आंखों मे आते रहे
 
आंसुओं-से इन आंखों मे आते रहे
  
नऩ्हे बचचों ने छू भी लिया चांद को
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नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चांद को
बूढे बाबा कहानी सुनाते रहे
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बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे
  
 
दूर तक हाथ मे कोई पत्थर न था  
 
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फिर  भी, हम जाने क्यों सर बचाते रहे
 
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शाइरी जह्र थी, क्या करे ऐ 'वसीम'
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शाइरी जह्र थी, क्या करें ऐ 'वसीम'
 
लोग पीते रहे, हम पिलाते रहे  
 
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16:36, 25 जून 2020 के समय का अवतरण

मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे

बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
लोग टूटी छते आज़माते रहे

आंखें मंज़र हुईं, कान नग़्मा हुए
घर के अन्दाज़ ही घर से जाते रहे

शाम आयी, तो बिछड़ा हुए हमसफ़र
आंसुओं-से इन आंखों मे आते रहे

नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चांद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे

दूर तक हाथ मे कोई पत्थर न था
फिर भी, हम जाने क्यों सर बचाते रहे

शाइरी जह्र थी, क्या करें ऐ 'वसीम'
लोग पीते रहे, हम पिलाते रहे