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मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे / वसीम बरेलवी

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मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे

बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं
लोग टूटी छते आज़माते रहे

आंखें मंज़र हुईं, कान नग़्मा हुए
घर के अन्दाज़ ही घर से जाते रहे

शाम आयी, तो बिछड़ा हुए हमसफ़र
आंसुओं-से इन आंखों मे आते रहे

नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चांद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे

दूर तक हाथ मे कोई पत्थर न था
फिर भी, हम जाने क्यों सर बचाते रहे

शाइरी जह्र थी, क्या करें ऐ 'वसीम'
लोग पीते रहे, हम पिलाते रहे