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मेरे नालों से ज़ालिम ख़ुद को इतना तंग कर बैठा / अनीस अंसारी
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मेरे नालों से ज़ालिम ख़ुद को इतना तंग कर बैठा
मेरी नमनाक आंखों से वह अंधी जंग कर बैठा
अपाहिज कर दिया पहले मुझे धोके से ज़ालिम ने
मेरी चीख़ों से घबराया तो उज्र-ए-लंग कर बैठा
बड़े जाबिर हैं मुझ को मार कर रोने नहीं देते
मैं उन की महफ़िलों के रंग में क्यों भंग कर बैठा
बड़ी मुश्किल से ईंटें जोड़ कर हम घर बना पाये
ग़लत तामीर कह कर शहरगर बेढंग कर बैठा
तुम्हारे राग में शामिल हैं सब्र-ओ-शुक्र के दो सुर
मियां ! उस्ताद है जो उन को हम-आहंग कर बैठा
मेरे जूतों से कुछ गर्द-ए-सफ़र बेतौर आ लिपटी
ज़रा सा झाड़ कर मैं फिर उन्हें ख़ुशरंग कर बैठा
यक़ीन-ए-फ़तह रक्खें ख़ैर-ओ-शर की जँग में ग़ाजी
शहीदाना ‘अनीस’ अपने अदू से जंग कर बैठा