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मेरे रक्‍त के आईने में / कुमार मुकुल

मेरे रक्‍त के आईने में
खुद को सँवार रही है वह
यह सुहाग है उसका
इसे अचल होना चाहिए

जब कोई चंचल किरण
कँपाती है आईना
उसका वजूद हिलने लगता है
जिसे थामने की कोशिश में
वह घंघोल डालती है आईना
हिलता वजूद भी फिर
गायब होने लगता है जैसे।