भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे लिये / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Abnish (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:39, 31 अक्टूबर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहो जी कहो तुम
कहो कुछ अब तो कहो
मेरे लिये!

भट्‌ठी-सी जलती हैं
अब स्मृतियाँ सारी
याद बहुत आती हैं
बतियाँ तुम्हारी

रहो जी रहो तुम
रहो साँसो में रहो
मेरे लिये!

बेचेनी हो मन में
हो जाने देना
हूक उठे कोई तो
तडपाने देना

सहो जी सहो तुम
सहो धरती-सा सहो
मेरे लिये!

चारों ओर समंदर
यह पंछी भटके
उठती लहरों का डर
तन-मन में खटके

मिलो जी मिलो तुम
मिलो कश्ती-सा मिलो
मेरे लिये!