भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे सपने / संजय शेफर्ड

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:00, 7 मई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय शेफर्ड |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे सपने मेरे आवरण हैं
जिन्हें एक छोटे हो चुके लिबास की तरह
मैं उपयोग करता हूं
और यह लिबास विस्तृत होने के बावजूद
हर दिन छोटा होता जान पड़ता है
मुझे याद हो आते हैं
वह चार नम्बर वाले काले-सफ़ेद फटे हुए जूते
जिन्हें छोटे हो जाने के बाद भी
मैं वर्षों तक पहनता रहा
उम्र बढ़ती रही, पैर कटते रहे
मुझे याद हो आती है
वह बत्तीस इंच लम्बाई की मठमैली पतलून
जो एड़ियों से उपर ऊपर चढ़ती रही
गांव के रग्घू दर्जी से मोहड़ी खुलवाता
जगह जगह फट जाने के बावजूद मैं पहनता
पीठ- पेट, वजूद को धकता रहा
मुझे याद आती है
बिना किसी ख़ासियत वाली वह जिददी कमीज़
जो बिना घटे ही अपनी अाकार खोती रही
और जब ज्यादा छोटी हो गई तो
मैंने पहले बढ़वाई
फिर कटवाकर हॉफ बाजू की बनवा ली थी
सपनों के साथ भी बिलकुल वैसा ही है
पहले अपने देह के हिसाब से देखता हूं
और ब्रह्माण्ड में खुला छोड़ देता हूं
फिर हृदय के मुताबिक़ खुद में केंद्रित करते हुए
आत्मा में समाहित करने का प्रयास करता हूं
और वह सपना बार बार टूट जाता है
एक बार और उतर आता है
मुझमें पैर काटते जूतों का वर्षों पुराना सकून
छोटी हो चुकी पतलून की हया के साथ
कमीज़ की बाजू के सिकुड़ने का जुनून
जिन्हें मोड़कर मैं थोड़ा और ऊपर चढ़ा लेता हूं
दरअसल, सपने देखना भी अब फैशन बन चुका है .