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मेरे सीने पर सर रक्खे हुए / बशीर बद्र

मेरे सीने पर वह सर रक्खे हुए सोता रहा
जाने क्या थी बात मैं जागा किया रोता रहा

वादियों में गाह उतरा और कभी पर्वत चढ़ा
बोझ सा इक दिल पे रक्खा था जिसे ढोता रहा

गाह पानी गाह शबनम और कभी ख़ूनाब से
एक ही था दाग़ सीने में जिसे धोता रहा

इक हवा ए बेताकां से आख़िरश मुरझा गया
जिंदगी भर जो मोहब्बत करके शजर बोता रहा

रोने वाले ने उठा रक्खा था घर सर पर मगर
उम्र भर का जागने वाला पड़ा सोता रहा

रात की पलकों पे तारों की तरह जागा किया
सुबह की आँखों में शबनम की तरह रोता रहा

रोशनी को रंग करके ले गए जिस रात लोग
कोई साया मेरे कमरे में छिपा रोता रहा