Last modified on 20 अक्टूबर 2017, at 20:09

मेस आयनक / राकेश पाठक

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:09, 20 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यह कांधार है
जहाँ जमीं में बुलबुले नहीं हैं
न फ़ाख्ता की चहचह
न सोनचिरैया के गीत

है यहाँ सूनापन अथाह सरकटी का
दबी है बारूद की सुरंगे और वाहियात सपनें
दबी है उन सुरंगों में लिजलिजाते हुए अवशेष
उन आततायियों के
जिन्होंने धर्म को क्रुसेड से जोड़
फूँक दी थी मानवता
उस सूर्ख़ हो चुकी मिट्टी में
मज़हब की मकतीरे नहीं रही थी सिर्फ़
है भग्नावशेष एक समृद्ध इतिहास का
ज़िहाद के नाम पर फूँकी गयीं
भग्नावशेषों में अब भी अश्वत्थ की तरह खड़े थे अहिंसापों के दर्प
जिसके अस्तित्व में बोध का सौंदर्य था
और ध्वनि रंध्रों में संघ शरण के वक्तव्य
विहारों में दबे पड़े थे
यान परम्पराओं की ऋचाएँ
अहिंसा के ये बीजतत्व
अब ध्वस्त कर दिए गए थे
वामियानों में लगी बारूद की शिराओं का एक कोना
इस कांधार के ध्वनाशेष की नींव है.

सूर्ख़ मिट्टी में उगे बबूल पर
रक्त की चिश्तिया चिपचिपा रही थी
कहीं नहीं थे मुस्कुराते बुद्ध
पुरातत्ववेत्ता की सनक में ढूँढी गयी
"मेस आयनक" का इतिहास
ढूँढे गए इस शहर में अंहिसा के गहरे रक्त थे
जैन अस्तित्ववादियों के नमो ओंकार
और बुद्ध के मुस्कुराते मुख़ौटों का
पूरा आगत अवशेष था बिखरा हुआ यहाँ
तथागत के प्रहसन के बीच
गिरते थे बाबा बलि पर्वत के छोरों, ढलानों से
संघ, शरण, शरणागत के उच्छवास

वही पर निकलता है लसलसा चिपचिपा
बैंगनी, नीले, हरे रंग का थोथा
इस तांबे के तूतिये में
मोगलम पूजा के बीज भी थे
जिसके हौले से छन्न की आहट से
खिलखिला उठते थे बुद्ध
आज वहाँ बन्दूकों की दस्तरख़ाने बिछीं थीं
जलायी जा रही थी जिस्मानी रूह
चीख़ रही थी उम्मीदें बचपन की.
इस शेष, अवशेष, भग्नावशेष के बीच भी
ढूँढ दी गयी थी एक 'मेस आयनक'
एक बौद्ध नगर
क़ातिल आवाजों के बीच
एक पागल पुरातत्ववेत्ता द्वारा.