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मैंने प्रेम को जिया / संतोष श्रीवास्तव

सिखाता है प्रेम
ब्रह्मांड भी जिसके लिए छोटा है
प्रेम बटोर लेता है
छोटे-छोटे पलों से कितना कुछ
जिंदगी के हर मोड़ पर
थमा देता है भरी झोली
हम समझ भी नहीं पाते
जिंदगी का सूरज अस्त होने तक
अपनी रिक्त किंतु समृद्ध हथेलियों को
आसमान की तरफ उठा कर
तमाम शिराओं को
निस्पंद होते महसूस कर
हम पुकार उठते हैं
हे ईश्वर ,अल्लाह, जीसस
मैंने प्रेम को जिया
मैंने समर्पण को जिया
अब ये आखिरी सांस
मृत्युंजय तुझे समर्पित