भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने ये चेहरा कभी देखा न था / रविंदर कुमार सोनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने ये चेहरा कभी देखा न था
आईने में अक्स वो मेरा न था

आँख खुलते ही हक़ीक़त खुल गई
दरमियान ए मा ओ तो परदा न था

ख़्वाब ही देखा किया दिन भर मगर
किस लिए तू रात भर सोया न था

कशमकश में ज़ीस्त की था कामराँ
जिसने अपना होसला खोया न था

उसकी आँखों को उम्मीद ए दीद थी
मर गए पर भी तो दम निकला न था

धंस गया जज़्बात की दलदल में क्यूँ
जिस का तन मैला था मन मैला न था

मैंने खोया और तूने पा लिया
ऐ रवि मुमकिन कभी ऐसा न था