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मैं अकेला हूँ, अकेली रात है / बलबीर सिंह 'रंग'

मैं अकेला हूँ, अकेली रात है।
फिर भी मैं बैचेन हूँ, क्या बात है?

रात भी मेरी तरह मजबूर है,
चार दिन की चाँदनी में चूर है।
टूट कर तारे बताते हैं यही,
भूमि से आकश फिर भी दूर है।
पर, क्षितिज पर देखता हूँ, व्यो ने
भूमि के आगे झुकाया माथ है।
फिर भी मैं बैचेन हूँ, क्या बात है?
मैं अकेला हूँ, अकेली रात है।

मुझको मलयानिल मनाती रह गई,
बात मधुवन की सुनाती रह गई।
फूल हँसते ही रहे, मैं कब रुका,
ओस भी आँसू बहाती रह गई।
चार बूँदें क्या भिगो सकतीं मुझे,
मेरी आँखों में छिपी बरसात है।
फिर भी मैं बैचेन हूँ, क्या बात है?
मैं अकेला हूँ, अकेली रात है।

रात है रवि की अधूरी साधना,
रात है शशि की सफल आराधना।
ये धरा, अम्बर, सलिल, पावक, समीर,
हैं सभी तो आदि कवि की कल्पना।
तुम जिसे समझा किये कविता कलाप,
वह तुम्हारे प्यार की सौगात है।
फिर भी मैं बैचेन हूँ, क्या बात है?
मैं अकेला हूँ, अकेली रात है।