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मैं अथर्व हूँ (कविता) / रामनरेश पाठक

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मैं अथर्व हूँ
उसकी ही भाषा में कहता हूँ---
जो मेरा अन्न छीनता है
जो मेरा पेय नष्ट करता है
जो मेरी श्रेष्ठ वाणी की जिधांसा करता है
वह और वह और वह
समूल विनष्ट हो जाए

मैं अथर्व हूँ
उसकी ही भाषा में कहता हूँ---
जो मेरे साथ-साथ चलने को
जो मेरे साथ-साथ स्वर में बोलने को
जो मेरे एकजुट होकर विमर्श करने को
रोकता है, टोकता है, बाधाएँ उत्पन्न करता है
वह और वह और वह
समूल जड़ हो जाए

मैं अथर्व हूँ
उसकी ही भाषा में कहता हूँ---
जो मेरी नदियाँ, सरोवरों, झरनों
झीलों, कूपों और सागरों में विष घोलता है
जो मेरे आकाश की शांति को प्रदूषित करता है
जो मेरे पहाड़ों, जंगलों, बागों, रास्तों, घरों
वाहनों, पातालों, भवनों और दफ्तरों में विस्फोट करवाता है
वह और वह और वह
अपना अस्तित्व समूल खो दे

मैं अथर्व हूँ
उसकी ही भाषा में कहता हूँ---
जो मुझे और जमीन को बाँटता है
टुकड़े-टुकड़े करने की साजिशें करता है
जो मेरी कविताओं, गीतों और रचनाओं की
अवमानना करता है
जो मेरे नृत्य, संगीत और कलाओं को
असभ्य, बर्बर और विध्वंसक बनाता है
वह और वह और वह
निभृत जड़ चेतना शून्य हो जाए

मैं अथर्व हूँ
उसकी ही भाषा में कहता हूँ---
जो मेरी सुरुचि, आस्वाद, सत्ता, संपत्ति
शक्ति, अस्तित्व और अस्मिता को
कैद करने का सपना देखता है,
जो मेरे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श का
चैतन्य समाप्त करना चाहता है,
जो मेरे इतिहास, सभ्यता, संस्कृति को विरूप करने
और विराम देने की परिकल्पना करता है
वह और वह और वह
एकाएक तिरोहित हो जाए

मैं अथर्व हूँ
उसकी ही भाषा में कहता हूँ