Last modified on 25 जुलाई 2016, at 07:12

मैं उजाले की प्रतीक्षा करूँगा / बोधिसत्व

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:12, 25 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बोधिसत्व |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अमावस की रात में
बाहर खुले में बैठा रहा चाँद की प्रतीक्षा में
पता नहीं बैशाख है या जेठ
एक पहर, दो पहर, तीसरे पहर से लेकर चौथे पहर तक
चाँद न उगा, बस खिली रही अमावस की घोर छाया।

कितने बादलों के टुकड़े आकाश को और मूँदते हुए गए
कितने कलरव करते निशा-खग आकाश को और गुँजाते हुए गए
कितने तारे झर गए राख बन
कितना-कितना व्यथित हुआ मन।

न लिखी गई, न छोड़ी गई चिट्ठियों का इन्तज़ार करना कौन-सी समझदारी है
न जन्म बच्चे का नाम रखना कौन-सी बुद्धिमानी है
न किए गए वादे पर मिलने चले जाना कौन-सी वफ़ादारी है
न गाए गए गीत पर नाच की मुद्रा में आना कुछ उचित तो नहीं।

चाँद तो चाँद तारे तक ओझल थे
आकाश राख का विकट विशाल घर था केवल
किसी चमक के न झिलमिलाने से
कौंध के न झलकने से, कुछ देर तो उलझन रही
लगा कि शायद बादल घनेरे हैं
उनके पीछे धवल-धब्बों वाला चाँद हो सकता है छिपा
उनके पीछे दीप-सम नक्षत्र हो सकते हैं।
 
लेकिन बादलों का कोई एक दर कोई एक ठिकाना तो होता नहीं
वे खेमा नहीं लगाते आकाश में
वे फकीर की तरह भटकते रहते हैं मिथिला से म्याँमार तक
वे भला किसी को क्यों छिपाने लगे नीर भरी झोली में
वे तो एक रोटी, एक मुट्ठी आँटा, एक तोला नमक भर खोजते हैं
इस घर उस घर
इस गाँव उस नगर
मैं उन पर अपने खिलाफ होने की तोहमत भी तो नहीं लगा सकता

मैंने एक पूरी रात उजाले की प्रतीक्षा में काटी
मैं पूरी उम्र उजाले की राह देखते बिता सकता हूँ।

उजाले के लिए कई-कई जन्म तक रुका जा सकता है
जो उम्मीद से भर कर इन्तज़ार नहीं कर सकते
उनमें से तो नहीं मैं।

ओ अमावस की रात
ओ राख, वो अन्धकार, ओ दिगन्त को ढँकने वाले मेघ खण्डो !
मैं अगली हज़ार रातों तक
और अगले कई-कई बरसातों तक यहाँ रहूँगा
और बार-बार कहूँगा कि
जो उम्मीद से भर कर इन्तज़ार नहीं कर सकते
उनमें से तो नहीं मैं।

भले पता न चले कि सावन है या भादौं
क्वार है या कार्तिक
जेठ की अमावस है अगहन की काली चौदस
मैं उजाले की प्रतीक्षा करूँगा।