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मैं किताब खरीद कर पढ़ना चाहता हूँ / देवेन्द्र आर्य

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किताब ख़रीद कर पढ़ना चाहता हूँ
मगर हिनाई महसूस होती है

ख़रीद कर पढ़ूँ वो भी साहित्य की किताब
तो मतलब साफ़ है कि साहित्यकार नहीं हूँ
हूँ भी तो टुटपुंजिया
यशः प्रार्थी
न अध्यक्षता लायक न विमोचन लायक
न समीक्षक

साहित्यकार होता या किसी पत्रिका का सम्पादक
तो लोग चिरौरी की मुद्रा में
सादर समर्पित करते अपनी किताब

ख़रीद कर वे ही पढ़ते हैं जिनकी कोई हैसियत नहीं होती
और जिनकी हैसियत होती है वे मुफ़्त मिली किताब
कभी नहीं पढ़ते

किसी किताब की दूकान पर
किसी बड़े साहित्यकार को कभी जेब में हाथ डालते
देखा है आपने ?

अव्वल तो वे खादी सिल्क का कुर्ता पहनते हैं बर्राख
जिसमें पर्स रखो तो जेब लटक जाती है
बड़ा ख़राब लगता है लटका-लटका अन्डू की तरह
दोयम यह कि ख़रीद कर ही पढ़ना था
तो नाम के आगे डा० किसलिए लगा है ?

सो बेहतर है
पी०एफ० निकाल कर छपवाई जाएँ किताबें
चढ़ावे की तरह चढ़ाई जाती रहें साहित्य के बाबाओं को
और फिर वहाँ से पहुँचें रद्दी वाले के पास
जैसे भव्य मन्दिरों में चढ़े लडडू
घूम के फिर उन्हीं दुकानों में पहुँच जाते हैं
जहाँ से ख़रीदे गए थे

मैं समीक्षार्थ समर्पित पुस्तकें
रद्दी से अधिया दाम पर ले आता हूँ इस उम्मीद में
कि किताब ख़रीद कर पढ़ने की मेरी हिनाई
एक न एक दिन ख़त्म होगी ज़रूर।