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मैं कि पुरशोर समन्दर थे मेरे पाँवों में / फ़राज़

मैं कि पुरशोर समन्दर थे मेरे पाँओं में
अब के डूबा हूँ तो सूखे हुए दरियाओं में

ना-मुरादी<ref>दुर्भाग्य</ref>का ये आलम है कि अब याद नहीं
तू भी शामिल था कभी मेरी तमन्नाओं<ref>चाहतों</ref>में

दिन के ढलते ही उजड़ जाती हैं आँखें ऐसे
जिस तरह शाम को बाज़ार किसी गाँओं में

चाके-दिल<ref>दिल का घाव</ref>सी कि न सी, ज़ख़्म की तौहीन<ref>अपमान</ref>न कर!
ऐसे क़ातिल तो न थे मेरे मसीहाओं<ref>चिकित्सकों </ref>में

ज़िक़्र उस ग़ैरते-मरियम<ref>मरियम की लाज (ईसामसीह की माँ)</ref>का जब आता है ‘फ़राज़’
घंटियाँ बजती हैं लफ़्ज़ों के कलीसाओं<ref>गिरजाघरों</ref>में

शब्दार्थ
<references/>