भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं कुर्मी हूँ, मुंडा हूँ / सीमा संगसार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कर्मी हूँ मुंडा हूँ
मेरे बालों में फूल नहीं शोभते
कंघी लगाना रास नहीं आया मुझे
मेरी कोमल उँगलियों में
तीर धनुक है कलम का वार है...
मैं भात नहीं रांधती
दूर से उसकी खुशबू आती है
हंडिया पर चढ़े भात को मैं देखती हूँ
दूर से जलते हुए धुओं से
मैं पहचानती हूँ भात का रांधना...
घाटो खाकर मेरी चमड़ी भी
मोटी हो गई है घाटो की तरह
जंगली फूल पत्ते शाही खरहा मेरे आहार हैं
धधकती आग मेरे उनी वस्त्र
पत्तों की छाल ही मेरे आवरण हैं!
हाँ! मैं कर्मी हूँ मुंडा हूँ...