Last modified on 23 जून 2017, at 14:09

मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे? / बलबीर सिंह 'रंग'

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:09, 23 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बलबीर सिंह 'रंग' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे?
मैं अपनी बीती आप बता दूँ कैसे?

मैं भुला चुका अपनी बीती बातों को,
निर्दयी नियति के निष्ठुर आघातों को;
मैं भुला चुका जग की शतरंजी चालें,
अनगिन ‘जीतों’ और गिनी ‘मातों’ को।

पर उन सबके गुण-दोष भुला दूँ कैसे?
मैं अपनी बीती आप बता दूँ कैसे?

जग में जितने मेरे ‘अपने’ कहलाते,
निस्वार्थ प्रेम के राग सदा जो गाते;
पर स्वार्थ सिद्धि का लक्ष्य साथ में लेकर,
मुझको अपनाकर अपने काम बनाते।

ऐसे अपनों को मैं अपना लूँ केसे?
मैं अपनी बीती आप बता दूँ कैसे?

उर में असंख्य अरमान लिए बैठा हूँ,
अपनेपन का अवसान लिए बैठा हूँ;
मत छेड़ो मुझको देखो मचल उठेंगे,
पंजर में पीड़ित प्राण लिए बैठा हूँ।

इन प्राणों को मैं त्राण दिला दूँ कैसे?
मैं अपनी बीती आप बता दूँ कैसे?

मानव होकर जब मैं जग में आया था,
अंतर घट मधु प्यार भरे लाया था;
भावी जीवन की आशा के भूतल पर
अरमानों के संसार बसा लाया था।

उन संसारों में आग लगा दूँ कैसे?
मैं अपनी बीती आप सुना दूँ कैसे?

मैं जीवन-मधु, दुनिया मुझ मधु की प्याली,
मैं नभ प्रभात, जग मुझ प्रभात की लाली;
मुझमें दुनिया में केवल अंतर इतना,
दुनिया की तन की उजली,पर मन की काली।
काली कमली पर ‘रंग’ चढ़ा दूँ कैसे?
मैं अपनी बीती आप सुना दूँ कैसे?