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मैं जब रिश्तों को लड़ते देखता हूं / राज़िक़ अंसारी

मैं जब रिश्तों को लड़ते देखता हूं
हवेली को उजड़ते देखता हूँ

न जाने क्यों मुझे लगता है , मैं हूँ
किसी को जब बिछड़ते देखता हूँ

पुरानी दास्ताँ में रोज़ तुम को
नए किरदार घड़ते देखता हूँ

कभी सीता हूँ अपने ज़ख़्म ख़ुद ही
कभी सीवन उधेड़ते देखता हूँ

कोई नाराज़गी है मेरी मुझ से
में ख़ुद को ख़ुद से लड़ते देखता हूँ