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मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया / साहिर लुधियानवी

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया

               बरबादियों का सोग़ मनाना फ़ुजूल था
               बरबादियों का जश्न मनाता चला गया

जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया

               ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
               मैं दिल को उस मुक़ाम पर लाता चला गया