भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं जिस्म ओ जाँ के खेल में बे-बाक हो गया / कबीर अजमल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:36, 9 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कबीर अजमल |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> मै...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जिस्म ओ जाँ के खेल में बे-बाक हो गया
किस ने ये छू दिया है के मैं चाक हो गया

किस ने कहा वजूद मेरा खाक हो गया
मेरा लहू तो आप की पोशाक हो गया

बे-सर के फिर रहे हैं जमाना-शनास लोग
ज़िंदा-नफस को अहद का इदराक हो गया

कब तक लहू की आग में जलते रहेंगे लोग
कब तक जियेगा वो ग़जब-नाक हो गया

ज़िंदा कोई कहाँ था के सदका उतारता
आखिर तमाम शहर ही खशाक हो गया

लहज़े की आँच रूप की शबनम भी पी गई
‘अजमल’ गुलों की छाओं में नक-नाक हो गया