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मैं जिस जंगल में रहता हूँ वहाँ भेड़िए आदमी नहीं हैं / अनुज लुगुन

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उस दिन मैं बहुत दुखी था
जब उसने मुझे कहा था कि मैं भेड़िया कुल का हूँ
उसने मुझे जंगली कहा
और कहा कि हमारे सींग होते हैं
और हम आदमी खाने वाले नरभक्षी असुर हैं
मेरे काले नाख़ूनों को देखकर
उसने कहा कि यह राक्षस प्रजातियों का है,

घर लौटने पर
मैंने अपनी माँ को बहुत गौर से देखा
मैं देख रहा था कि मेरी माँ में क्या है जो मुझमें है
उसके शरीर में सींग, पूँछ, दाँत और नाख़ून खोज रहा था
तब मेरी माँ ने मुझे देखकर बहुत प्यार से एक गीत गाया --
पण्डुक के बच्चे तुम बड़े हो जाओगे तो
अपनी प्रियतमा के साथ मेरे लिए गीत गाओगे
तब मैंने पाया कि मेरी माँ के गीत
दुनिया के लिखे किसी भी पोथी और ज्ञान से
ज़्यादा सुन्दर और मधुर हैं और मैं भी उसी का अंश हूँ,

उस दिन जो अपने पोथियों और ज्ञान के भण्डार का
सन्दर्भ देकर मुझे जंगली कह गया
मैंने देखा उसके दो हाथ, दो पैर, सिर
और नाक के बीच कोई पूँछ नहीं थी
ना ही उसके कोई सींग थे वह पूरा आदमी ही था
और एक दिन जब मैं अपने साथियों के साथ
गाँव में घुस आए भेड़ियों को भगा रहा था तो
रात के अँधियारे में भी मैं पहचान गया कि वे भेड़िए ही थे

रचनाकाल : 19 मार्च 2013