"मैं ज्ञान से अनगढ़, गढ़ना चाहता हूँ मिट्टी भर सौंधापन / सुरेश चंद्रा" के अवतरणों में अंतर
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आत्मा की आड़ भर से लिखना | आत्मा की आड़ भर से लिखना | ||
कि देह मिट्टी भर है | कि देह मिट्टी भर है | ||
− | और अंततः ढह जाना देह कि गंध | + | और अंततः ढह जाना देह कि गंध में |
− | अलौकिक सुगंध | + | अलौकिक सुगंध की संपुष्टि करते हुए |
हालांकि | हालांकि | ||
बिना अतिशयोक्ति-अलंकार के | बिना अतिशयोक्ति-अलंकार के | ||
− | मिट्टी | + | मिट्टी की भाषा में क्लिष्ठ |
लिख सकता हूँ | लिख सकता हूँ | ||
− | + | उत्तेजक शब्दों से परे | |
मेरे पोर-पोर पर अंकित | मेरे पोर-पोर पर अंकित | ||
− | सिहरन | + | सिहरन की हर लिखावट तुम्हारी |
− | होठों पर होंठ धरते | + | होठों पर होंठ धरते हुए |
तुमने धर न दी होंगी | तुमने धर न दी होंगी | ||
− | ढेरों प्राथनाएँ | + | ढेरों प्राथनाएँ मुझमें |
जिनसे गुहार सकता हूँ | जिनसे गुहार सकता हूँ | ||
− | हर संताप परिवर्तित प्रेम | + | हर संताप परिवर्तित प्रेम में?? |
केश जब गुदगुदाते होंगे | केश जब गुदगुदाते होंगे | ||
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पार सिहरन से संतृप्त मन | पार सिहरन से संतृप्त मन | ||
न जगाता होगा भिक्षु | न जगाता होगा भिक्षु | ||
− | शांत, सौम्य सुधि तर्षित प्रेम | + | शांत, सौम्य सुधि तर्षित प्रेम में?? |
− | आलिंगन बद्ध | + | आलिंगन बद्ध भुजाओं में |
− | कसते | + | कसते हुए कंपकंपाहट |
गुंथ गए होंगे नाभि से नभ तक | गुंथ गए होंगे नाभि से नभ तक | ||
− | जैसे गुंथ जाते हैं फूल एकाकार माला | + | जैसे गुंथ जाते हैं फूल एकाकार माला में |
− | पश्चात हर हलचल के समर्पित प्रेम | + | पश्चात हर हलचल के समर्पित प्रेम में?? |
मैं ज्ञान से अनगढ़ | मैं ज्ञान से अनगढ़ | ||
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गढ़ना चाहता हूँ | गढ़ना चाहता हूँ | ||
मिट्टी से केवल | मिट्टी से केवल | ||
− | + | मिट्टी भर सौंधापन | |
मैं परित्यक्त हूँ | मैं परित्यक्त हूँ | ||
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मेरा आत्म जीवंत है | मेरा आत्म जीवंत है | ||
रोम-रोम, पोर-पोर अभिव्यक्त | रोम-रोम, पोर-पोर अभिव्यक्त | ||
− | वास्तविक व्याख्याओं से | + | वास्तविक व्याख्याओं से. |
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13:12, 20 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
वस्तुतः तुम
केवल एक देह नहीं हो
फिर भी
नहीं हो सकेगा मुझ से
आत्मा की आड़ भर से लिखना
कि देह मिट्टी भर है
और अंततः ढह जाना देह कि गंध में
अलौकिक सुगंध की संपुष्टि करते हुए
हालांकि
बिना अतिशयोक्ति-अलंकार के
मिट्टी की भाषा में क्लिष्ठ
लिख सकता हूँ
उत्तेजक शब्दों से परे
मेरे पोर-पोर पर अंकित
सिहरन की हर लिखावट तुम्हारी
होठों पर होंठ धरते हुए
तुमने धर न दी होंगी
ढेरों प्राथनाएँ मुझमें
जिनसे गुहार सकता हूँ
हर संताप परिवर्तित प्रेम में??
केश जब गुदगुदाते होंगे
पीठ, कांधे, वक्ष
पार सिहरन से संतृप्त मन
न जगाता होगा भिक्षु
शांत, सौम्य सुधि तर्षित प्रेम में??
आलिंगन बद्ध भुजाओं में
कसते हुए कंपकंपाहट
गुंथ गए होंगे नाभि से नभ तक
जैसे गुंथ जाते हैं फूल एकाकार माला में
पश्चात हर हलचल के समर्पित प्रेम में??
मैं ज्ञान से अनगढ़
अपरिपक्व अचेतन
गढ़ना चाहता हूँ
मिट्टी से केवल
मिट्टी भर सौंधापन
मैं परित्यक्त हूँ
दर्शन की वैचारिक झंझाओं से
मेरा आत्म जीवंत है
रोम-रोम, पोर-पोर अभिव्यक्त
वास्तविक व्याख्याओं से.