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मैं तुम्हारी, तुम हमारे / गोपालदास "नीरज"

मैं तुम्हारी तुम हमारे!

नयन में निज नयन भर कर
अधर पर सुमधुर अधर धर
साध कर स्वर, साध कर उर
एक दिन तुमने कहा था प्रेम-गंगा के किनारे।
मैं तुम्हारी तुम हमारे!

था कथित उर-प्यार हारा
मौन था संसार सारा
सुन रहा था सरित-जल, सब मुस्कुराते चाँद-तारे।
मैं तुम्हारी तुम हमारे!

अब कहीं तुम, मैं कहीं हूँ
अर्थ इसका मैं नहीं हूँ
शेष हैं वे शब्द, क्षत उर-स्वप्न, दो नयनाश्रु खारे।
मैं तुम्हारी तुम हमारे!