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मैं नहीं हिमकण हूँ जो गल जाऊंगी / कविता किरण

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वत्सला से
वज्र में
ढल जाऊंगी,
मैं
नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊंगी।

दंभ के
आकाश को
छल जाऊंगी,
मैं
नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊंगी।

पतझरों की पीर की
पाती सही,
वेदना के वंश की
थाती सही।
कल मेरा
स्वागत करेगा सूर्योदय,
आज दीपक की
बुझी बाती सही।

फिर
स्वयं के ताप से
जल जाऊंगी
मैं
नही हिमकण हूँ
जो गल जाऊंगी