Last modified on 16 मार्च 2015, at 14:39

मैं न टुकड़ों पर गिरा हूँ / रमेश रंजक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:39, 16 मार्च 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

देह में खंजर नुकीला सोच कर
राज की यह बात कहता हूँ ।

बात यह है -- सत्य !
टकराने लगा है त्रासदी से
त्रासदी टकरा रही है आदमी से

आदमी मैंने बचाया हर तरह से
इसलिए तकलीफ़ सहता हूँ ।

मार अपनी आत्मा को
मैं न टुकड़ों पर गिरा हूँ
इसलिए कुछ कह रहे हैं सिरफिरा हूँ

दे धता !
मौक़ा परस्तों की
सरहदों से दूर रहता हूँ ।