नहीं हिमालय जितना ऊँचा
मैं पत्थर अदना-सा हूँ
धारा तो दुश्मन है लेकिन
मिलीं ठोकरें अपनों से
क्या होता अवकाश न जाना
रहा अपरिचय सपनों से
अंतिम साँसों तक लड़कर मैं
जीने की अभिलाषा हूँ
संघर्षों में पली-बढ़ी
कुछ रूखी है अपनी बानी
पर करती बहुत सहजता से
दूध-दूध, पानी-पानी
मुक्तिबोध-अग्येय नहीं हूँ
मैं कबीर की भाषा हूँ
अपनी क्षमता का पता मुझे
रेत-रेत हो जाना है
किन्तु खाद-मिट्टी से मिलकर
क्रांति-बीज बो जाना है
बाधाओं से नित लड़कर ही
जीने की परिभाषा हूँ