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मैं पुरुष खल कामी / रवि कुमार

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मैं पुरुष हूँ
एक लोहे का सरिया है
सुदर्शन चक्र सा यह
बार-बार लौट आता है, इतराता है
यह भी मैं ही हूँ
आदि-अनादि से, हजारों सालों से
मैं ही हूँ जो रहा परे सभी सवालों से
मैं सदा से हूँ
मैं अदा से हूँ
मैं ही दुहते हुए गाय के स्तनों को
रच रहा था अविकल ऋचाएं
मैं ही स्खलित होते हुए उत्ताप में
रच रहा था पुराण गाथाएं
मैं ही रखने को अपनी सत्ता अक्षुण्ण
गढ़ रहा था अनुशासन स्मृतियां
मैं ही स्वर्गलोक के आरोहण को
गढ़ रहा था महाकाव्य-कृतियां
मैं ही था हर जगह
शासन की परिभाषाओं में
शोर्य की गाथाओं में
मैं ही था स्वर्ग के सिंहासन पर
अश्वमेधी यज्ञों पर
चतुर्दिक लहराते दंड़ों पर
मैं ही निष्कासनों का कर्ता था
मैं ही आश्रमों-आवासों में शील-हर्ता था
मैंनें ही रास रचाए थे
मैंने ही काम-शास्त्रों में पात्र निभाए थे
मै ही क्षीर-सागर में पैर दबवाता हूँ
मैं अपनी लंबी आयु के लिए व्रत करवाता हूँ
मैं ही उन अंधेरी गंद वीथियों में हूँ
मैं ही इन इज्ज़त की बंद रीतियों में हूँ
मैं ही परंपराएं चलाती खापों में हूँ
गर्दन पर रखी खटिया की टांगों में हूँ
ये मेरे ही पैर हैं जिसमें जूती है
ये मेरी ही मूंछे है जो कपाल को छूती हैं
ये मेरा ही शग़ल है, वीरता है
ये मेरा ही दंभ है जो सलवारों को चीरता है
कि नरक के द्वार को
मैं बंद कर सकता हूँ तालों से
मैं पत्थरों से इसे पाट सकता हूँ
मैं इसे नाना तरीक़ों से कील सकता हूँ
मैं ब्रह्म हूँ, मैं नर हूँ
मैं अजर-अगोचर हूँ
मेरी आंखों में
हरदम एक भूखी तपिश है
मेरी उंगलियों में
हरदम एक बेचैन लरजिश है
मेरी जांघों में
एक लपलपाता दरिया है
मेरे हाथों में
एक दंड है, एक सरिया है
मैं सदा से इसी सनातन खराश में हूँ
मैं फिर-फिर से मौकों की तलाश में हूँ…