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मैं भी अपनी गठरी खोलूँ तू भी अपनी गाठें खोले / देवेन्द्र आर्य

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मैं भी अपनी गठरी खोलूँ तू भी अपनी गाठें खोले ।
बाद की बातें बाद में होंगी पहले दिल की बात तो होले ।।

कितना रिश्ता कितनी दूरी कितनी गाढ़ी है मजबूरी,
आगा-पीछा सोच-सोच के मौसम अपने पत्ते खोले ।

रो लेने से ख़्वाबों पर जो गर्द पड़ी है, धुल जाती है,
रोना एक जीवन उत्सव है आ मेरे संग तू भी रो ले ।

कठिन दिनों की नर्म शायरी, नर्म दिनों की सख़्त अदावत,
दिल की जेब है ख़ाली-ख़ाली, अटे पड़े शब्दों के झोले ।

मित्र-भाव शारीरिक हैं लेकिन दुश्मनियाँ हुईं दिमाग़ी,
जैसे कोई मंजा खिलाड़ी हाथ जोड़ के जेब टटोले ।

अगर इसी से बच जानी है अपने आँगन की किलकारी,
आओ चल के लौटा दें हम जीते हुए मौहल्ले-टोले ।

सीमा के उस पार है साज़िश सीमा के इस पार इलेक्शन,
अब के झण्डारोहण में फूलों की जगह झरे हथगोले ।