भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं रेत हूँ / अनामिका अनु

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:22, 19 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका अनु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं रेत हूँ
तट पर पड़ी प्रतीक्षा करती
समुद्र को चारों तरफ़ से बाँहों में समेटे
भीग जाती हूँ
आती-जाती भावों की बारम्बार लहरों से
पर यह आवर्ती प्रक्रिया भर है
प्रेम जैसा है पर प्रेम नहीं
शायद प्रेम को बाँधना
और फिर साधना नामुमकिन है
मैं भीगती तो हूँ, पर उस इश्क़ को अवशोषित नहीं कर पाती
वह मेरे किसी कण के भीतर समा नहीं पाता
बस, बाहर ही लगा रहता है ।
 
फिर मुश्किल दौर की उस धूप में मैं छोड़ देती हूँ उसे
या वह उड़ जाता है मौक़ा देखकर पता नहीं
कहा न ये इश्क़ नहीं संसर्ग है
सम्पर्क है जो गाढ़े वक़्त में ख़त्म हो जाता है
चाहे कितना भी लम्बा और आनन्ददायक हो
समुद्र और बालू का वही चिरकालिक रिश्ता है
सम्पर्क, संसर्ग और काम इच्छा वाला
भीगते-भिगाते, सिमटते-बहाते
आती जाती भावों की लहरों वाला
नियमित, आवश्यक, पारम्परिक
ठीक वैसा ही, जैसा वि…