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मैं संगलाख़ ज़मीनों के राज़ कहता हूँ / राज नारायन 'राज़'

मैं संगलाख़ ज़मीनों के राज़ कहता हूँ
मैं गीत बन के चट्टानों के बीच गूँजा हूँ

तुलू-ए-सुब्ह का मंज़र अजीब है कितना
मिरा ख़याल है मैं पहली बार जगा हूँ

मिरा वजूद गनीमत है सोचिए तो सही
मैं ख़ुश्‍क डाल का पत्ता हरा हरा सा हूँ

बजा कि रोज़ अँधेरा मुझे निगलता है
मैं रोज़ इक नया ख़ुर्शीद बन के उठता हूँ

किसी ने बात ही समझी न हाल ही पूछा
अजीब कर्ब के आलम में घर से निकला हूँ

मैं जानता हूँ कि है इर्तिका की क्या सूरत
मैं आह बन के उठा अब्र बन के बरसा हूँ

अजीब बात है हर सम्त रास्ते हैं रवाँ
अजीब बात है मैं घर की राह भूला हूँ

मुझे तलाश करेंगे नई रूतों में लोग
मैं गहरी धुंद में लिपटा हुआ जज़ीरा हूँ

इस इक सवाल ने रक्खा है मुद्दतों हैराँ
मैं किस का रूप हूँ मैं ‘राज़’ किस की छाया हूँ