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मैं हूँ जंगली / प्रज्ञा पाण्डेय

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हाँ, मैं हूँ जंगली, मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली
नहीं समझती
तुम्हारी भाषा
उतनी आभिजात्य नहीं कि
ओढ़ कर लबादा तुम्हारी हँसी का
बाँटती रहूँ अपने सस्कार तुममें

मुझमें नहीं इतनी ताक़त
कि पी जाऊँ अपनी अस्मिता
और
परोसूँ अपना वजूद

हाँ मैं हूँ जंगली ..
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएँ पहन तुम होते हों वहशी !

मगर मुझे क्रोध आता है तुम्हारी हंसी पर
मुझे क्रोध आता है
जब ग्लैमर कि चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हों मुझको परोसना !

हाँ मै हूँ जंगली, नहीं जानती सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हों और मै हूँ शोषिता!