भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं हूँ मानवी / संध्या नवोदिता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं हूँ
समर्पण हैं, समझौते हैं
तुम हो बहुत क़रीब

मैं हूँ
हँसी है, ख़ुशी है
और तुम हो नज़दीक ही

मैं हूँ
दर्द है, आँसू हैं
तुम कहीं नहीं

मैं हूँ मानवी
ओ सभ्य पुरुष !