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मैं हूं अभी भी / संजय पुरोहित

मैं हूं अभी भी
बेशक
पिंजर बनती बंद मुट्ठियों के साथ
टूटे शीशों के हजार सपनों के साथ
हवा होते हर दूसरे निवाले के साथ
कुंद होते इंकलाब के नारे के साथ
मैं हूं अभी भी

मैं हूं अभी भी
बेशक
दबंगों के कशीदे सजे जूतों के नीचे
कानून की मोटी भारी किताबों के नीचे
बड़ी पंचायतों के मोटे फरमानों के नीचे
राहत टपकाते उड़नखटोलों के नीचे
मैं हूं अभी भी

मैं हूं अभी भी
बेशक
फ्लाईओवरों की ओट बसी बस्तियों के बीच
फ्लैशलाईट की रोशनी फेंकते कंधों के बीच
आह्वान अपील और फतवों के क्रंदन के बीच
रीलीफ कैम्पों से उठती रूदालियों के बीच
मैं हूं अभी भी

मैं हूं अभी भी
बेशक
सितारों सजे चमकते से मेगा हाईवे के किनारे
सुपरफास्ट रेलों की कांपती पटरियों के किनारे
ईशगृहों के दमकते मार्बल की चौकियों के किनारे
लाल बत्तियों से सजे गुजरते काफिलों के किनारे
मैं हूं अभी भी

मैं हूं अभी भी, बेशक
साथ में, बीच में नीचे और किनारों पर
है अस्तित्व मेरा
जिसमें कहीं दबी छिपी है
एक चिरंतन प्रतीक्षा
प्रतीक्षा
एक चिंगारी की