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मै अन्धेरे में उजाला देखता हूँ / गिरीश पंकज

मैं अन्धेरे में उजाला देखता हूँ
भूख में रोटी-निवाला देखता हूँ

आदमी के दर्द की जो दे ख़बर भी
है कहीं क्या वो रिसाला देखता हूँ

हो गए आज़ाद तो फिर किसलिए मैं
आदमी के लब पे ताला देखता हूँ

हूँ बहुत प्यासा मगर मैं क्या करूँ अब
तृप्त हाथों में ही प्याला देखता हूँ

कोई तो मिल जाए बन्दा नेकदिल-सा
ढूँढ़ता मस्जिद, शिवाला देखता हूँ